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बर्फ के चेहरे

शीला गुजराल

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5480
आईएसबीएन :00000

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श्रेष्ठ कविता संग्रह

Barf Ke Chehre A Hindi Book By Shila Gujral - बर्फ के चेहरे - शीला गुजराल

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिंदी, पंजाबी, अंग्रेजी की जानी-मानी कवयित्री श्रीमती शीला गुजराल का यह कविता-संग्रह ‘बर्फ के चेहरे’ उनके पिछले कविता-संग्रहों से भिन्न और विशिष्ट है। यह संग्रह जहाँ उनकी काव्य यात्रा में आए अनेक बहावों और पड़ावों का साक्षात्कार कराता है, वहीं यह आज की हिंदी कविता के बीच उनकी काव्यात्मक संवेदना का भी साक्षी है।

शीला गुजराल ने अपनी इन कविताओं में प्रकृति प्रेम और अपने परिवेश के यथार्थ को संवेदनशील अभिव्यक्ति देते हुए ऐसे काव्य-बिंबों की रचना की है जिन्हें सहज ही अनुभव किया जा सकता है। इन कविताओं में एक ऐसी आवेगपूर्ण मांसलता है जो ऐंद्रिक होने के बावजूद एक तरह की दिव्यता में आलोकित होती है। वास्तव में अर्थवत्ता और मौलिकता के साथ शीला जी की अपनी कलात्मक क्षमता ‘बर्फ के चेहरे’ संग्रह में मुखर है।

प्रकृति-प्रेयसी

प्रणय की खाट पर बेसुध, बेखटके, प्रेयसी की बाँहों में लिपट,
असंख्य जन एक साथ पा सकें मादक आनंद
-क्या यह संभव है ?
हाँ, है।
प्रेयसी का प्रेम असीमित है।
सौंदर्य अपार है ! और अजर अमर भी है।
तभी तो संसार के सभी जीव-जंतु, युगयुगांत से, उसके रूप-रस का सुधा पान कर रहे हैं।
प्रेयसी की हर भाव-भंगिमा मतवाली है
सोलह श्रृंगार कर मुस्काती, हाव-भाव दिखाती, जब वह ऋतुराज
का स्वागत करती है तो उसे देख आँखें चुँधिया जाती हैं।
उदास मुख निर्वसन सुधबुध खोयी प्रेयसी का रूप तो और भी मर्मस्पर्शी है।
बर्फ से ओतप्रोत, वायु की वीणा के तार झंकारती, दिग्-दिगंत में गौतम और ईसा के संदेश पहुँचाती, मानो अलौकिक देवी का साक्षात रूप हो। क्रोध की भंगिमा में चहुँ ओर चिनगारियाँ फैलाती,
नयनों के डोरों से आग बरसाती हुई भी कोई कम आकर्षित नहीं है वह
सूरज के आतंक से भयभीत हो
जब कभी हमें घर की चारदीवारी में किवाड़ बंद कर रहना पड़ता है,
तब भी हम प्रेयसी के स्मृति-चिह्न-
कभी गमले में एक पौधा, कहीं फूलदान में एक कली और कहीं तश्तरी में
कुछेक पत्र-पुष्प साथ रखना चाहते हैं, वे भी न हों तो रंगों में कैद किए हुए कुछ छाया-चित्र ही सही।
यह बहुरूपी जादूगरनी एक ही समय में अनेक रूप धारण कर
मानव मात्र का मन रिझाती है।
कहीं चंचल चपला का रूप, कहीं माँ भैरवी की प्रशांत मुस्कान,
कहीं तराशी हुई निर्वसन मूर्ति, कहीं नव दुल्हन-सी सजी सँवरी सजनी।
प्रेमीजन इसके हर रूप पर दीवाने हैं,
इसकी हर मुद्रा पर बलिहारी हैं।
कभी वे इस रूपवती की उपासना करते हैं,
कभी इससे वात्सल्य स्नेह पाते हैं
कभी प्रणय-देह देख हो उठते हैं कामातुर, और कभी बाल-सुलभ क्रीड़ा देख
गद्गद हो उठते हैं।
मैंने प्रियतमा की हर भाव-भंगिमा को आतुर उत्सुकता से निहारा है
असीम सौंदर्य को हृदय में सँवरा है।
मानस-पट पर मचलते कुछेक स्मृति-चिह्न
शब्दों के रथ पर आ बैठे
और अन्य प्रेमियों से जुड़ने को आतुर हो उठे !

मैं जानती हूँ कि बीसियों प्रेमियों ने अपने हृदय के उद्गार शब्दों की
स्वर्णिम नगीने-जड़ित बगिया में सजाकर पाठकों को प्रस्तुत किए हैं।
तब भी मैंने संगम तक अपने रथ को जैसे-तैसे ले जाने का प्रयास
किया। मेरे अंतर्मन के उद्गारों में पाठक गण अपने हृदय के अरमानों
की अनुभूति पाएँ, वे अपने सोए सपनों की कोई झलक देखें तो मैं
अपनी साधना सफल मानूँगी।

बर्फ के चेहरे

प्रकृति से मुझे सदा लगाव रहा है। मुझे उसके सभी रूप प्रिय हैं। मास्को में रहते हुए, जिसने मेरे मन पर अपनी अमिट छाप लगा दी है, वह इसका हिमानी रूप। इसने तो मानो मुझे वशीभूत ही कर लिया है। अक्सर मनवीणा इसी के राग झंकारती है। मन में बसी हुई अनेक प्राकृतिक झाँकियाँ जब भी शब्दों की बगिया में बैठने को मचलती हैं तो यह तुरंत लगाम थाम, सारथी के स्थान पर विराजमान हो जाता है।

अकस्मात् मेरे रोम-रोम से इसी का जयगान गूँजता है। बर्फ के विभिन्न चेहरे मेरे चारों ओर रासलीला प्रारंभ कर देते हैं। तन-मन इसी की महिमा में लीन हो जाता है। तभी तो पुस्तक का शीर्षक भी इन्हीं झांकियों की झंकार है-बर्फ के चेहरे।

शीला गुजराल

बर्फ के चेहरे


बर्फ की फुही जब धीमे से धरा को छूती है
तब दिखता है-मानो सैकड़ों मील दूर बैठी बन्नो के कंगन की झंकार
खनकती, मचलती, उभरती, अनिल की बगिया में बैठ मेरे कानों में अमृतरस घोलने आ पहुँची हो।
बर्फ की हल्की बौधार, जब चारों ओर अपना मादक रस टपकाती है
तब लगता है, मानो बन्नो की प्रणय-पुकार
भावावेश के झूले में खिलखिलाती, मेरे सोए हृदय को जगाने
हिमकण के रूम में उभरती हो।
बर्फ की भारी बौछार जब दूर क्षितिज तक धूम मचाती है
तब लगता है-
मानो बन्नो के ज्वलंत हृदय की कसक
टूटे अरमानों के अवशेषों से लिपट
आर्तनाद करती, जोरों से बिलख रही हो।
बर्फ का तूफान जब साँय साँय करता दिग्-दिगंत में गुर्राता है
तब ऐसा आभास होता है, मानो बन्नो का भग्न हृदय करंट-सा, मेरी धमनियों से लिपट
तांडव करता प्रलय को हुंकार रहा हो
और हमारी समवेत ध्वनि तूफान की गर्जना बन समूची जगती को लील रही हो!

हिमानी



हिमानी,
नदी-नाले, पर्वत-वनानी
सभी को पाँव तले दबोच
चिर निद्रा में सुला
काल नियति का अनुशासन भूल
यूँ इठलाती
मानो स्वयं हो
अजर, अनश्वर।
रवि-रश्मियाँ आतीं, मोर्चा लगातीं
चतुर मायावी
कपट मुस्कान से झुठला
सम्मोहित करतीं
अपनी गरिमा भुला
धवल काया गुदगुदा
वापस लौट जातीं।

एक दो तीन
कई दिन, कई सप्ताह
यही कार्यक्रम
सम्राज्ञी की सजीली काया
बनती गई गठीली
नित नई रसीली
बिसर गए वे बीते दिन
जब लाख कोशिश करने पर भी
धरा को छू न पाती।

केवल तप्त हृदय के उच्छ्वास
तरल हिमकण
कभी कभार
पृथ्वी को चूम
मन का त्रास मिटाते थे।
तब कई बार चेष्टा की थी
उसने-
आँधी के डैनों पर बैठ
धरती तक पहुँचने की
और वह गँदली काई के
कलुषित रूप परिणत हो
आ बिफरती थी।
कुछ दिन हुए
वह फिर सचेत हुई-
अपना भाग्य आजमाने
धाक जमाने।
आश्वस्त हो
जब फिर लगी इठलाने
तब त्रस्त नदी-नाले, झरने तालाब
सब ने मिलकर
भानुदेव को पुकारा।
रवि ने पवन संग मोर्चा लगा
आतंक का अस्तित्व मिटाया।
कुछ ही दिनों में
मोम-सा पिघलता
हिमानी का गठीला शरीर
ढलकता, लुढ़कता चला आया
त्रस्त नदी नाले झरने तालाब
निर्बाध, निर्भय
खुशी के गीत गुनगुनाने लगे।

हिमानी-2


पहले मुझे वे जरावस्था से भय था,
अब नहीं है।
हिम का विपुल स्नेह पा
हृदय शांत हुआ
अंग-प्रत्यंग निहार
मन मुग्ध हुआ
अछूती नग्न काया छू
नयन तृप्त हुए
ओजस्वी हुए।
हिमनिधि से किलोल करती
रजत-किरण का चुंबन
कैसा मादक है !
धवल हिमपात से प्रणय निवेदन करते
अनिल का स्वर कितना उन्मादक है।
बिछुड़े भटके फूलों का हिमपाश में सिमटना
थके-माँदे पत्र-पात्र का मस्त हो लिपटना
धरा सा मुस्कराना, अंग-अंग सहलाना सिहराना
वत्सल स्वर में निंदिया बुलाना
सौंदर्य का यह अगाध सागर-अमन का दरवेश
बुढ़ापे की महिमा का देता है संदेश।


हिमपात



सारी शाम
धीमी-धीमी बौछार
लोरी की तरह
आँगन थपथपाती
निंदिया बुलाती रही,
साँझ ढले
श्वेत चादर में लपेट
लौट गई।

अगली दोपहर
अल्हड़ आँगन
ओढ़नी उतार
आँसुओं से भीगा
नग्न पड़ा था।

दूसरी शाम
वात्सल्यमयी फिर आई
आँगन थपथपाने, निंदिया बुलाने-
यह क्रम कई दिन चला।...

एक सुबह मैंने देखा
नटखट आँगन
भीगी बिल्ली की तरह
श्वेत ओढ़नी की
कई परतों में लिपटा
बेसुध पड़ा था।
मीठी नींद में मगन
सपनों की दुनिया में खोया
न जाने कब तक सोया रहा !

पार्वती



तुहिन श्रृंग की अछूती आभा-
रोम-रोम मंत्रपूत कर
शिराओं में उन्माद
तन-मन में स्फूर्ति भर
स्वयं
शिवोपासना में निमग्न है !


तिलिस्म



प्रणयी देवताओं के पंक्तिबद्ध उच्छ्वास ।
धूमिल स्याह बादल
धवल हिम-शिखर का पड़ोस पाते ही
दूधिया चाँदनी से निखर उठे !


तिलिस्म-2



हिमकण आभूषणों से
नखशिख लदी
देवदार शखाओं ने-
मन-दर्पण में झाँक
खालीपन को पूर दिया !


तिलिस्म-3


धरा के बर्फीले होठ
रवि-चुंबन पा
हुए उद्वेलित,
कामातुर अधरों से
स्फुलिंग उभरा
सरताज-
ऋतुराज !


तिलिस्म-4



सूरज ने
धरती के
पपड़ी-जमे होठों की
चुम्मी ली,
क्षणिक संसर्ग से
वन बौराया
तरु गदराया
सहस्रों नवजात शिशु
अकुला कर
ऋतुरात के
स्वागत में
रेशमी रुमाल लहराने लगे !




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